The “Life of Issa” begins with an account of Israel in Egypt, its deliverance by Moses, its neglect of religion, and its conquest by the Romans. Then follows an account of the Incarnation. At the age of thirteen the divine youth, rather than take a wife, leaves his home to wander with a caravan of merchants to India (Sindh), to study the laws of the great Buddhas. Issa is welcomed by the Jains, but leaves them to spend time among the Buddhists, and spends six years among them, learning Pali and mastering their religious texts. Issa spent six years studying and teaching at Jaganath, Rajagriha, and other holy cities. At twenty-nine, Issa returns to his own country and begins to preach. He visits Jerusalem, where Pilate is apprehensive about him. The Jewish leaders, however, are also apprehensive about his teachings yet he continues his work for three years. He is finally arrested and put to death for blasphemy, for claiming to be the son of God. His followers are persecuted, but his disciples carry his message to the world.
Source- https://en.wikipedia.org/wiki/Nicolas_Notovitch
“१३ वर्ष की उम्र में ईसा मसीह के रिश्तेदार उसकी शादी की तैयारियाँ कर रहे थे। पर वह चाहते थे कि कुँवारा ही रहे। और इसीलिये अपने घर छोड़ कर, सौदागरों के एक समूह के साथ भारत के सिन्धु-नदी (Indus river) के तट पर आ गये। आने के बाद जैन-साधुओंके एक झुंड में यात्रा कर ओड़िसा (Odisha) के जगन्नाथ पुरी आ पहुँचे।
वहाँ उसने कठोर आत्म-संयम में रह कर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये ब्राह्मण पण्डितों के संरक्षण में वेदों का अध्ययनकिया। उसने स्मृतियों ( code of conduct) भी अध्ययन किया।वहाँ जा कर बौद्ध-धर्म के अनुसार दीक्षा लिया और धोती पहिन कर वेदों का अध्ययन किया। २० वर्ष का जब वह हो गया तो उसकी शिक्षा पूरी हो गई थी। तत्पशात साधु-संतों की संगति में रह कर अनेक पवित्र स्थानों की यात्रा की। जैसे राजगृह, बनारस, प्रयाग आदि। इसके बाद नेपाल और तिब्बत में उसने बुद्ध-धर्म के विहार में रह कर छै साल की ट्रेनिंग की। इस प्रकार हिन्दुस्तान (आर्यावर्त) या भारत में रह कर तीस वर्ष की उम्र में बौद्धधर्म का तपस्वी बन कर ईरान के रास्ते अपने देश को लौट गया। वहाँ उसने भारतीय दर्शन-शास्त्र की शिक्षा का प्रसार करना शुरू किया ( जीजस के अज्ञात-जीवन के किताब पर आधारित-by Dr.Notovich)
जब जीसस १४ साल का था तब वह श्री शिवजी की भक्ति और उपासना कर रहा था। तब उसका नाम ईसा-नाथ (Eesha Nath) था। उसने अपने देश में उसी शैव-विद्या के ज्ञान का प्रचार किया जिसे भारत में अपनी शिक्षा के दौरान प्राप्त किया था। पर कुछ धर्म-विरोधी छ्ल-कपट और धोखेबाज लोग थे उसे सहन नहीं कर पाये। उन लोगों ने उसे शूली पर चढ़ा दिया। पर किसी प्रकार उसके गुरू जो नाथ-संप्रदाय के थे उसे शूली से निकाल कर उसे जीवित कर दिये। इसके बाद उसके गुरू और ईसा नाथ ने हिमालय की तराई में एक आश्रम की स्थापना की जहाँ ईसानाथ ने तीन साल तक घोर तपस्या की। ४९ वर्ष की उम्र में उसकी मृत्यु हुई। उसकी समाधि काश्मीर में अभी तक ईसा-साहिब की समाधि के रूपमें दिखाया गया है। बाद में ईसा नाम बदल कर येशु (Jesus) हो गया।
वेटिकन-पैलेस में जीजस का चित्र दिखाया गया है जिसमें उसके सिर का हजामत किया हुआ है। सिर्फ़ कुछ बाल उसके सिर के पीछे के तरफ़ है और उसने धोती पहनी हुई है तथा उसके कंधे पर अंगोछा कपड़ा लटक रह है जो भारत के शैव-तपस्वी से मिलता जुलता है। इस चित्र को क्रिश्चियन लोगों ने स्वीकार नहीं किया। वे १७ साल के भारत में जीसस के आवास के इतिहास को नहीं पसंद करना चाहते थे।“खास बात यह है कि श्री माताजी ने सहजयोग में हमें पुनर्जन्म ( Second Birth) दिया जैसे पार्वती जी ने श्री गणेश को बनाया था। उसमें शिवजी का कोई हाथ नहीं था। पिता का कोई रोल नहीं था। यह कार्य तो केवल आदिशक्ति ही कर सकती है। यह दिव्य शक्ति( Divine Power) का काम है। साधारण मानव का काम नहीं। इसी प्रकार जीजस-क्राईस्ट को भी माता मेरी (Mother Mary) ने मन से गर्भ में ला कर जन्म दिया। क्योंकि मदर-मेरी आदिशक्ति का अवतार थी। इसलिये उनको दोष नहीं देना चाहिये। य़ह तो उनके कौमार्य या पवित्रता (Chastity, Virginity) की शक्ति है जो इच्छा करने मात्र से प्रकृतिसे परे कार्य कर सकती है।
श्री जीजस-क्राईस्ट का जन्म दो हजार पहले हुआ था। और उसने भविष्य वाणी की थी कि हमारा दोबारा जन्म इसी जन्म में होगा। सहज योग में हम लोगों का दोबारा जन्म हमारी कुण्डलिनी-शक्तिने जो कि हमारी दिव्य-माँ ( Divine Mother) ने दिया। पर यह जन्म सहस्रार-चक्र में हुआ। मूलाधार में पहला जन्म हुआ था जिसे हमें हमारे साँसारिक माता-पिता ने दिया था। कुण्डलिनी ह्मारे भीतर आदिशक्ति का ही प्रतिबिम्ब है और अत्यंत पवित्र शक्ति है। उसका सेक्ससे कोई वास्ता नहीं है। उसका स्थान मूलाधार के ऊपर है।बाईबिल के अनुसार ईसा-मसीह के शिष्यों ने उससे पूछा- महानुभाव इसके बाद आप कब आयेंगे? तब उसने चेतावनी दी कि अब से २ हजार साल बाद मैं फिर आउँगा। पर जब कोई आदमी (Man) कहे कि ईसा तो गर्भ-गृह में है और कोई कहे कि वह तो जंगल ( बियाबान) में विचरण कर रहें हैं और कोई कहे कि मरुस्थल में उसने ईसा को देखा है तो इन लोगों ( ढ़ोंगी और अधर्मी ) की बातों नहीं आना। क्योंकि प्रकाश (Light) पूर्व-दिशा ओर से आता है। मतलब यह है कि ईसा-मसीह (Light of the world) ईशान अर्थात देवताओं के स्थान से आयेगा जो कि भारत वर्ष है और श्री माताजी साक्षात य़ीशु ही हैं। इसी बात को अनुभव के बाद हमने कविता के रूप में लिखा है जो इस प्रकार है।महात्मा ईसा की चेतावनी पर, पुन: ध्यान अब आया है ।
“सच की परख” करने का, अंतिम अवसर अब आया है ॥२०॥
कोई यदि कहे मरुभूमि में उसने, दर्शन ईसा का पाया है। साथ अपने चलने को, औरों को भी उकसाया है ॥२१॥
कोई कहे गर्भगृह में, निवास प्रभु यीशु करते हैं। कोई कहे मेरे साथ चलो, वियावान में प्रभु विचरते हैं ॥२२॥
विश्वास न करना इन छ्द्मवेशियों का, क्योंकि प्रकाश पूर्व से आता है । “आत्मसाक्षात्कार दायिनी” इस कलियुग में, केवल एक निर्मला माता हैं ॥२३॥
अब उसकी भविष्यवाणी की सत्यता सहजयोग में सिद्ध हो गई है। अतः किसी और स्वघोषित भगवान, संत, बाबा, गुरू, तथा चमत्कार करने वाले लोगों की बातों में नहीं आना। वे साधारण लोगों को भटका कर नर्क की ओर ले जायेंगे।
जीजस-क्राईस्ट की कहानी-श्री माताजी की जुबानी—श्री माताजी के एक हस्त-लिखित नोट में लिखा गया है जिसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है—